Friday, September 20, 2013

निधि प्रेम की मैंने पाई है

उसे समर्पित गीत मेरे , जिसने प्रेमाधार दिया,
मेरे मन के भावों को , अपने में ही साकार किया। 

मिटा दिया निज बोध, समर्पण था उसका इतना गहरा ,
रही लालसा जैसी मेरी, वैसा ही श्रृंगार किया। 

मन की बातें, मन ही जाने, होठों से न काम लिया,
कब क्या चाहा मन ने मेरे, झट उसने पहचान लिया। 

मेरी बातें, मेरे सपने, सब अपने कर लिए उसी क्षण,
मेरे अवगुण भी स्वीकारे, दामन जब उसका थाम लिया। 

जब प्रसन्नचित हुआ बहुत मैं, पवन सी लहराई रहती ,
रोया तो कान्धा उसका था, आँचल था जब धूप हुयी। 

मेरे आँसू, उसके आँसू, इतने बहे कि सूख चुके अब ,
तन से रहे दूर तो क्या, मन को भी कोई बांध सका है,
वो मेरी है मैं उसका हूँ, ये जान के हर्षाई रहती। 

मुझको पाया खुद को खोकर, मैंने भी उसको पाया है,
साँसे कहतीं, धड़कन कहती, मुझमे उसका ही साया है। 

मैं हँसा हंसी वो संग मेरे, रोया रोई वो संग मेरे,
जीवन की यही कमाई है, निधि प्रेम की मैंने पाई है। 

रूठा-रूठी, मान-मनौव्वल, चिढ़ना-चिढाना, छीना-झपटी के, 
वो दिन बड़े सुहाने थे, प्यार के हैं ये खेल मनोरम, ढंग भी बड़े निराले थे। 

साथ रहें तो हरदम झगड़ा, पटता नहीं था क्षण भी एक,
दूर रहें तो समय न बीते, मिलने को रहते थे अधीर। 

सूना आँगन, सूनी बैठक, वो गलियाँ सूनी लगती हैं,
जिस राह चले तुम बाँह पकड़, वो राहें तुम्हें पूछती हैं। 

साथ-साथ चलते-चलते, जिस मोड़ पे तुम मुड़ जाते थे ,
अब भी उस मोड़ पे ये नजरें, बरवश मुड़ जाया करती हैं। 

पवन चले जब पुरवाई , एक टीस उभरती है मन में,
अनुभव अपना तो यही रहा कि, विरह प्रेम की कमाई है। 

दूर भले ही प्रिय रहता, मन निकट खींच ले आता है,
कल्पित व्यवहार करे मनमाना, अपनी क्षुधा मिटाता है। 

एक हुए मन, सुधि अब तन की किसे रही,
मन का बंधन ही सच्चा है, तन तो चीज परायी है। 

जीवन की यही कमाई है, निधि प्रेम की  मैंने पाई है।  
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