Monday, September 30, 2013

श्रृद्धांजलि : जब तुम थे अपनापन था

यूँ तो हर कोई तन्हा होता है, पर जब तुम थे अपनापन था। 
किसी के लिए भी कोई कब तक रोता है, पर जब बात चली, आँखों में गीलापन था। 

रह गए कितने काम अधूरे, कितनी आशाएं टूट गयीं,
एक तुम्हारे जाने से, जीवन में कितना सूनापन है। 

चले गए जिस राह प्रिय तुम,  जाना सबको उसी डगर,
पर इतनी जल्दी जाओगे सपने में भी अनुमान न था। 

चिरपरिचित मुस्कान तुम्हारी, सबका दुःख हर लेती थी 
पर उसको भी तेरी जरूरत, इसका हमको भान न था।

यूँ तो हर कोई तन्हा होता है, पर जब तुम थे अपनापन था। 
किसी के लिए भी कोई कब तक रोता है, पर जब बात चली, आँखों में गीलापन था।  

उपर्युक्त श्रृद्धांजलि हमारे विभाग के एक साथी लेक्चरर स्वर्गीय  डा. अंशुल कुमार राणा एवं विभागाध्यक्ष की धर्मपत्नी  स्वर्गीय श्रीमती श्वेता तिवारी के एक के बाद एक निधन के पश्चात लिखा गया।  यह श्रृद्धांजलि विभाग की स्मारिका वृद्धोत्थान २०१० की पृष्ठ संख्या ११ पर प्रकाशित हुयी, और नेशनल सी एम् इ इन जिरियाट्रिक साइकाइट्री -२०१० तथा वृद्धावस्था मानसिक स्वास्थ्य विभाग के पाचवें स्थापना दिवस के अवसर पर पढ़ा गया।   हम आज भी इन दोनों महानुभाओं को मिस करते हैं.………… 

खोलो निज मन द्वार सखी हे!

खोलो निज मन द्वार सखी हे!, खोलो निज मन द्वार,
परिवर्तन है जगत का नियम, करो इसे स्वीकार सखी हे! 
खोलो निज मन द्वार।  

आता बसंत उन्माद जगाने, वर्षा आती प्यास बुझाने 
ग्रीष्म कठिन संघर्ष सिखाये, शीत ताप से मुक्ति दिलाये,
समय -समय पर ऋतुएं बदलें, करो इनका आभास,
करो इनका सत्कार, होना न तु उदास सखी हे !
खोलो निज मन द्वार। 

ऐसा नहीं कि नीरस है मन, ऐसा नहीं कि आस नहीं है,
जीवन के विभिन्न रंगों की, मन में अपने चाह नहीं है,
जीवन के उत्थान -पतन का, निज मन में आभास नहीं है,
अच्छे -बुरे के द्वन्द में न पिसो, करो अपना उपकार सखी हे!
खोलो निज मन द्वार। 

तन चाहे मिल जाते लाखों, मन चाहा मुश्किल से मिलता,
मन चाहे को मीत बना लो, हृदय का करो  श्रृंगार,
मन चाहा अगर मीत मिले तो, चलो संग कदम चार, 
करो कुछ उसका भी उपकार, मिले हैं दिन जीवन में चार सखी हे !
खोलो मन के द्वार। 

बिना  स्वप्न उत्थान नहीं है, बिना जुड़े निर्माण नहीं है
सपने  पलकों पे सजने दो, मन के तारों को जुड़ने दो,
सपने पूरे जब होते हैं, खुशियाँ मिलती अपार सखी हे!
मिलन -विछोह जीवन के रस हैं, करो इनका रसपान सखी हे!
खोलो निज मन द्वार। 

परिवर्तन है जगत का नियम, करो इसे स्वीकार सखी हे! 
खोलो निज मन द्वार । 

पीछे छूट चले थे जो, फिर उन लम्हों से बात हुयी

मुझे अपने मित्र की शादी में बनारस जाना था।  काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस में मेरा रिजर्वेशन था। प्लेटफार्म पर बैठकर ये पंक्तियाँ लिखते हुए मेरी ट्रेन छूट गयी और मुझे बस से जाना पड़ा।  आप भी इनसे रूबरू हों:


पीछे छूट चले थे जो , फिर उन लम्हों से बात हुयी,
वर्षों बाद लगा जैसे, मेरी मुझसे मुलाकात हुयी। 

जितनी मुद्दत, उतने शिकवे , जिस शिद्धत से बख्शे उसने,
वर्षों बाद लगा जैसे, फिर से मेरी पहचान हुयी। 

मन में फिर अंतर्द्वंद लिए, हिम्मत -कायरता संग लिए, 
सीमा-रेखा में बंधे-बंधे, फिर वही अधूरी बात हुयी। 

थे नयन सजल, फिर भी सुकून महसूस हुआ इस शिद्धत से,
रोम रोम पुलकित हो उट्ठे प्रेम की  यूँ बरसात हुयी। 

वर्षों बाद लगा मुझको , मेरी मुझसे मुलाकात हुयी।  

बाकी है

उनसे मिलकर लगा मुझे, कुछ आस अभी भी बाकी है ,
कोई नया फ़साना जन्मेगा , आगाज़ अभी भी बाकी है। 

बेकाबू होती धड़कन, जब-जब नजरें चार हुयीं,
झुकी हुयी पलकें कहतीं अरमान अभी कुछ बाकी हैं। 

अरमानों की बात करें क्या, ये कब पूरे हॊते हैं ,
मृगतृष्णा सी भटकन हैं ये, तृप्ति हमेशा बाकी है। 

छोडो इन सब बातों को अब, सिर्फ इन्हे महसूस करो,
करने को अभी काम बहुत हैं, दुनियादारी बाकी है।  

शेरो-शायरी


(१)
 चंद लम्हे जो गुजारे थे तेरी सोहबत में
तन्हाई में अक्सर उन्हें याद किया करते हैं।

(२)
वालिद का नाम रोशन करने की फिक्र कर,
दाग दामन में गर लगा के जिये भी तो क्या जिये।

(३)
अगर ये हक नहीं हमको, करूँ नजरें किसी से चार,
तराशा जिसने भी मुझे, क्या उसकी गुस्ताखी न थी।

(४)
खुद को आइना समझ के देख अपनी शक्ल,
पानी चढ़े न इतना की डूब जाए ईडियट।  

(५ )
उनकी नजरों का मैं घायल, दर्द मिटाऊ तो कैसे ?
मेरे लिए इस नए शहर में, मैखाना वो पैमाना भी।  

Monday, September 23, 2013

अनभूति नई और तुम

कोई नया परिचय -
तुम्हारा नाम लगता है, 
कोई नया अनुभव -
तुम्हारे साथ होना चाहता है, 
प्रकृति की गोद-
साथ् चाहती है तुम्हारा।
कोई नया गीत- 
तलाशता है तुम्हे,  
कोई नई राह- 
जाती होगी तुम तक पर- 
पथिक नही पहुँच पाता वहाँ। 
लेकिन हर कार्य से पहले,
सोच से पहले, 
अनुभव से पहले और बाद तक
सिर्फ और सिर्फ् तुम होते हो। 

कहलाता वो : मेरी परिभाषायें

समय - जीवन का, धार-  जल की
वेग- पवन का, शिखर- पर्वत का
छूने को जो करता प्रयास -
महत्वाकांक्षी कहलाता वो। 

अनुभव- परिवर्तन के , सुगंध- पुष्पों की
कलरव- पंछियों के , मार्ग- उत्थान के
करता आत्मसात जो-
कहलाता वीतरागी वो।

गुंजन- भौरों की, यौवन- कलियों के
मिलन- हृदयों के , विछोह- अपनों के
देख उन्मत्त जो-
कहलाता अनुरागी वो।

सवेरा- काली रात के बाद , बसेरा- अंधड़ के बाद
सुख- दुःख की सीमा पर , जीत- हारने के बाद
बांधता मंसूबे जो-
कहलाता आशावादी वो।

ज्ञान है- अभिमान नहीं , शक्ति है- अन्याय नहीं
सुख दुःख है- लिप्त नहीं , क्षमा है- कायर नहीं
झूठ है- अकल्याण नहीं, प्रेम है- प्रदर्शन नहीं
मिले ऐसा नर अगर तो-
नारायण सम कहलाता वो।

Friday, September 20, 2013

निधि प्रेम की मैंने पाई है

उसे समर्पित गीत मेरे , जिसने प्रेमाधार दिया,
मेरे मन के भावों को , अपने में ही साकार किया। 

मिटा दिया निज बोध, समर्पण था उसका इतना गहरा ,
रही लालसा जैसी मेरी, वैसा ही श्रृंगार किया। 

मन की बातें, मन ही जाने, होठों से न काम लिया,
कब क्या चाहा मन ने मेरे, झट उसने पहचान लिया। 

मेरी बातें, मेरे सपने, सब अपने कर लिए उसी क्षण,
मेरे अवगुण भी स्वीकारे, दामन जब उसका थाम लिया। 

जब प्रसन्नचित हुआ बहुत मैं, पवन सी लहराई रहती ,
रोया तो कान्धा उसका था, आँचल था जब धूप हुयी। 

मेरे आँसू, उसके आँसू, इतने बहे कि सूख चुके अब ,
तन से रहे दूर तो क्या, मन को भी कोई बांध सका है,
वो मेरी है मैं उसका हूँ, ये जान के हर्षाई रहती। 

मुझको पाया खुद को खोकर, मैंने भी उसको पाया है,
साँसे कहतीं, धड़कन कहती, मुझमे उसका ही साया है। 

मैं हँसा हंसी वो संग मेरे, रोया रोई वो संग मेरे,
जीवन की यही कमाई है, निधि प्रेम की मैंने पाई है। 

रूठा-रूठी, मान-मनौव्वल, चिढ़ना-चिढाना, छीना-झपटी के, 
वो दिन बड़े सुहाने थे, प्यार के हैं ये खेल मनोरम, ढंग भी बड़े निराले थे। 

साथ रहें तो हरदम झगड़ा, पटता नहीं था क्षण भी एक,
दूर रहें तो समय न बीते, मिलने को रहते थे अधीर। 

सूना आँगन, सूनी बैठक, वो गलियाँ सूनी लगती हैं,
जिस राह चले तुम बाँह पकड़, वो राहें तुम्हें पूछती हैं। 

साथ-साथ चलते-चलते, जिस मोड़ पे तुम मुड़ जाते थे ,
अब भी उस मोड़ पे ये नजरें, बरवश मुड़ जाया करती हैं। 

पवन चले जब पुरवाई , एक टीस उभरती है मन में,
अनुभव अपना तो यही रहा कि, विरह प्रेम की कमाई है। 

दूर भले ही प्रिय रहता, मन निकट खींच ले आता है,
कल्पित व्यवहार करे मनमाना, अपनी क्षुधा मिटाता है। 

एक हुए मन, सुधि अब तन की किसे रही,
मन का बंधन ही सच्चा है, तन तो चीज परायी है। 

जीवन की यही कमाई है, निधि प्रेम की  मैंने पाई है।  
                                   ***

प्रेम प्रेम

आधार जगत का प्रेम प्रेम, आह्लाद जगत का प्रेम प्रेम।  
वाणी बस एक प्रेम प्रेम , विस्तार जगत का प्रेम प्रेम।। 

आनंद जगत का प्रेम प्रेम, अनुदान जगत का प्रेम प्रेम। 
पुकार जगत की प्रेम प्रेम , लक्ष्य जगत का प्रेम प्रेम।।

रस की धारा है प्रेम प्रेम, आँखों की भाषा प्रेम प्रेम।  
राधा का जीवन प्रेम प्रेम , कान्हा की लीला प्रेम प्रेम।।

सबकी अभिलाषा प्रेम प्रेम , विरहिणी की आशा प्रेम प्रेम। 
मित्रों का साँझा प्रेम प्रेम , तेरी मेरी गाथा प्रेम प्रेम।। 

अनकहा

मेरे और तुम्हारे बीच , जो कुछ भी है अनकहा 
तुम ही बताओ तुमसे उसे कैसे कहूं ?
दिन में किया अभ्यास , स्वप्न में हुआ आभास 
पर व्यर्थ सब प्रयास 
कुछ भी न कहा सका, तुमसे हुआ जब सामना 
अब तुम ही बताओ, तुम से उसे कैसे कहूं ?
ये अनकहा 
मुखर अभिव्यक्ति है 
मेरे भावों की, मेरे साधना की, मेरे विशवास की और 
झूठ के बीच दम तोड़ते सत्य की 
जब तुम समझ न पाते प्रिय 
तब तुम ही बताओ तुमसे उसे कैसे कहूं?
इस अनकहे को स्वर देना होगा 
जब तुम भी नहीं समर्थ 
पर साथी!
इसके पूर्व, मुझे फिर से गढ़ना होगा -
मेरे -तुम्हारे संबंध की नीव को,
सीचना होगा, प्रेम की धार से 
श्रृद्धा और विश्वास को 
जगाना होगा मेरे -तुम्हारे बीच सो गए 
अपनत्व को ममत्व को। 

सोया नहीं अपनत्व, ह्रदय में भरा ममत्व 
मजबूत है नीव भी संबंधो की 
और हैं श्रृद्धा और विश्वास भी 
वंचित स्नेहिल स्पर्श से 
एकाकी हुआ था सब। 
तुम्हारी दृष्टि ही पर्याप्त 
तुम्हारी मुस्कान में है व्याप्त 
जो भी रहा है अनकहा। 
तो साथी!
सब बचा लो बिन कहे 
क्योंकि अनकहा है 
हमारे बीच का सम्बन्ध। 

मैं तुम्हे सोच रहा हूँ

मैं तुम्हे सोच रहा हूँ -
हाँ सिर्फ तुम्हे 
तुम्हारी वीरान आँखे- 
रेगिस्तान में उठते धूल के बवंडर के समान। 
तुम्हारी मुस्कान-
सूर्योदय के पूर्व की अरुणाभा के समान।  
तुम्हारी हँसी -
सरोवर में खिलते पुष्प कमल के समान। 
तुम्हारे होठ-
सीपी के दोनों कपाट के समान जो 
लज्जा से रक्तिम कपोलों को बार-बार डसते हैं
और मैं उजड्ड 
उन्हें बन्धनहीन कर,
उनके डसने का आनंद लेता हुआ सोच रहा हूँ … 
हाँ मैं तुम्हे सोच रहा हूँ
सिर्फ तुम्हें….  

आओ आ जाओ मेरे पास 
मैं रेगिस्तान को बहार बना लूँगा, बवंडर को शीतल मंद बयार बना लूँगा, 
अरुणाभा को माथे का तिलक , और कमल को श्रृद्धा के हार बना लूँगा।

आओ आ जाओ मेरे पास 
नागिन को कर-पाश में बाँध लूँगा, मोतियों से भरी सीप चुरा लूँगा, 
कपोलों से लज्जा को लाली , और तुझे अपने आप से चुरा लूँगा।

आओ आ जाओ मेरे पास 
काँटों भरी राह को मखमली बना दूंगा, तेरे सपने अपनी पलकों पे सजा लूँगा,
अपने वचन से मुक्त कर दे मुझे कोई , मैं तुझे अपना हाँ अपना बना लूँगा। 
 

वो

वो चुप हैं,
सिमटे हैं अपने आप में; 
बचते हैं ,
कहीं खुल न जाएँ आपसे; 
तनते हैं ,
कुछ ढीले होने के लिए, 
डरते हैं दूसरों से, 
पर लड़ते हैं अपने आप से; 
मुझे मालूम है -
इस चुप्पी में खिलखिलाहट, 
बचने में छटपटाहट,
तनने में मुस्कुराहट ,
डरने में अव्यक्त आहट, 
और लड़ने में सकपकाहट, 
की अभिव्यक्ति है। 
छोड़ो भी ये आडम्बर, 
उठाओ सर ,
मिलाओ कर ,
निकालो डर, 
हम सभी अपने हैं, 
पाना चाहते हैं तुम्हे, 
बिल्कुल  तुम्हारी तरह।    

कहने को कर दिया समर्पण

अपनापन आड़े रहा नहीं, कुछ तुमने मुझसे कहा नहीं
फिर क्यों न भेद्वृत्ति मिटती, जब मैं अपना ही रहा नहीं।

अंतर खिचता किसी और ओर, दामन किसका है कौन छोर ,
क्यों इसका तुमको ज्ञान नहीं, मारी फिरती हो चहुँ ओर।
 
क्या लिया क्या दिया मत सोचो, मत प्रेम तराजू पर तौलो ,
रत्ती भर न हिला पाओगी, चाहे जितना जतन कर लो । 

देख सकी न निर्मम दर्पण, निज करता रहा निज से घर्षण ,
सदा हिचक ही रही है मन में, कहने को कर दिया समर्पण। 
  

तुम और मेरा अपनापन

चले गये सभी, एक-एक करके चले गये
तन्हा मैं यादों में बिता रहा पल
कसक है अनजानी, अव्यक्त जो व्यक्त कर रही व्यथा 
तुम्हे पढ़ने की कोशिश में बार-बार आड़े आ जाता है 
मेरा अपनापन।
चलता, रुकता, सहमता, देखता हर एक दिशा 
दिखेगी झलक हवाओं में , फिजाओं में शमाओं में 
मुस्कुराऊंगा। 
मिटती नहीं बढ़ती जाती है तुम्हें समझने की चाह 
मस्तिष्क में बजती हैं सीटियाँ 
उनमें लय  पिरोता मैं, बनाता हूँ माला एक 
कर देता हूँ समर्पित कल्पना को 
जिसमें -
तुम्हीं हो, तुम्हीं हो, बस तुम्हीं हो। 
  

Thursday, September 19, 2013

कर्तव्य और प्रेम

कोई माने या न माने, पर मैंने माना है,
प्रेम अग्नि में तप-तप कर ,
बस ! इतना जाना है कि -
कर्तव्य है बड़ा प्रेम से।
और -
जीवन में किया अनुभव अब तक
हैं प्रेम में जीवन के सब रंग -
जैसे कि -
मेरे प्रिय-शत्रु मेरे, मेरे हिय-मृत्यु मेरे
मेरे नित्य-अनित्य मेरे, मेरे सत्य- मिथक मेरे,
मनभावन हो, तुम पावन हो , मरुस्थल में सावन हो,
मेरे कटु-मृदु मेरे , मेरी घृणा-प्रेम मेरे।      



अपने जन्मदिन पर हमारा उपहार हो तुम

तुम तपिश, तुम खलिश, कशिश हो तुम,
तुम पावन, तुम सावन, मनभावन हो तुम ,
तुम सितार, तुम मल्हार, दुलार हो तुम,
ममत्व से सराबोर किसी का प्यार हो तुम। 
अपने जन्मदिन पर हमारा उपहार हो तुम।।   
                                              शीतल अगन, ठंडी जलन, मीठी चुभन हो तुम,
                                              नेह से भीगी हुयी, बासंती पवन हो तुम,
                                              सुचरित, कटुता रहित, समता की फुहार हो,
                                              अपनत्व से सराबोर प्रेम की पुकार हो तुम।  
                                              अपने जन्मदिन पर हमारा उपहार हो तुम।। 
अस्फुट कली की खिलन, पपीहे का स्वाति बूँद से मिलन,
धरा सी धैर्य, सहन, वेदना में अश्रु रहित  रुदन,
स्नेह सिक्त हृदयों, विषयों से जुड़ी हुयी, 
महत्व से सराबोर, मित्रों का सुधार हो तुम।   
अपने जन्मदिन पर हमारा उपहार हो तुम।। 
                                                शिशु-मन को माँ की लोरी सी, मुरझाये स्वप्न सींचती,
                                                गर्मी में शीत लहर सी, जाड़ों में खिली धूप सी,
                                                दुष्टता, नीचता, क्रूरता, और अश्लीलता के लिए 
                                                जड़त्व से सराबोर एक तीखा प्रहार हो तुम।  
                                                अपने जन्मदिन पर हमारा उपहार हो तुम।। 
पावित्र्य की महक तुम, चमकता आदित्य हो तुम,
विधि हाथ रचित अनुपम साहित्य हो तुम,
तुम दोहा, तुम छंद, रस-अलंकार  हो तुम, 
गुरुत्व से परिपूर्ण, उत्तम विचार हो।  
अपने जन्मदिन पर हमारा उपहार हो तुम।। 
                      
 ***

तुमने मुझसे कहा A Little More......

बात उन दिनों की है जब मैं धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में जॉब कर रहा था।  वहां पर मेरे एक अभिन्न मित्र की हालत देखकर मुझसे रहा नहीं गया, और मैंने प्रश्न पूछने वाले अंदाज़ में एक कविता लिखी।  इस कविता के जवाब में उस मित्र ने अंग्रेजी में तीन पंक्तियां लिखी और मुझे सुनाई। कविता और उसका उत्तर  दोनों  आपके लिए प्रस्तुत हैं :

तुमने मुझसे कहा कहो वे सारी बातें, 
नींद नहीं आती कैसे कटती हैं रातें,
मैंने सुना है दिन भर खोये से रहते हो 
कभी-कभी यूँ लगा की सोये से रहते हो,
अंजानी मुस्कान थिरकती मुख पर तेरे ,
रहते हो बेचैन रोज तुम साँझ सवेरे। 

 और मैंने कहा -
 A little more and I would add a twinkle in her eye,
A little more and I would add a glow to her smile,
A little more and I would get her happiness for life.
                                                                 19th Sep . 2003 
                                          The  above lines in original writing of my friend:
  
                                    ***

Wednesday, September 18, 2013

तुम और मैं

तुम याद आते हो -
       
लय टूट जाती है, ताल बिखर जाता है, साज रुक जाता है।  
तुम पास आते हो -
       
धड़कन बढ़ जाती है, साँस रुक जाती है, पलक थम जाती है।
तुम मुस्कुराते हो -
         
कलियाँ खिल जाती हैं, भौरें गुनगुनाते हैं, मन डोल जाता है।  
तुम सिर झुकाते हो -
         
दिल बल्लियों उछलता है, निगाहें चूम लेती हैं, हृदय में प्यार उमड़ता है।
तुम रूठ जाते हो -
         
कलेजा मुहँ को आता है, स्वयं पर क्रॊध आता है, मनाना मुझे आता है।
तुम मान जाते हो-
         
मन मुस्कुराता है, होठ शरारती हो जाते हैं , तुम सिमट जाते हो।  
तुम्हे पत्र लिखता हूँ -
         
हाथ कंपकपाते हैं, स्याही सूख जाती है, निब टूट जाती है।    
***

कोई हमसे सीखे

अंतर्मन के अनछुए तारों को छेड़ना ,
जीवन बिसात पर नीति के खेल खेलना 
मुस्कुराते हुए दुर्दांत कष्टों को झेलना 
कोई हमसे सीखे।  
                                                   हँसते को रुलाना, रुलाकर हँसाना 
                                                    सतरंगी सपने पलकों पे सजाना 
                                                    कटु शब्दों से आहत कर, मृदु बोलों से पटाना 
                                                    कोई हमसे सीखे।  
साथ रह के पास न, पास रह के साथ न 
मीत से भी प्रीति न , प्रीति में भी मीत न 
जीतकर हारना , हारकर भी जीतना 
कोई हमसे सीखे।  
                                                    प्रेम में तन्मय हो डूब जाना 
                                                    प्रिय की यादों में गोते लगाना 
                                                    विश्वास पतवार ले पार जाना 
                                                    कोई हमसे सीखे।  
गम को छुपाकर मुस्कराना 
किसी को भी गले से लगाना 
संबंधों को पल-पल निभाना 
कोई हमसे सीखे।  
                                                 आंसुओं के सागर को सुखाना 
                                                  किसी के लिय स्वयं को मिटाना 
                                                  समस्याओं को शांति से सुलझाना 
                                                  कोई हमसे सीखे।  
***

अज़नबी

आज एक अज़नबी  मिला 
इत्तफ़ाक से अपना ही पड़ोसी निकला
सोचते होंगे -
तो फिर अज़नबी  कैसे?
वो इसलिए कि, 
मेरे हृदय की गहराई को न छू सका था अभी तक
और न छू सकेगा कभी
क्योंकि 
मैं खुद ही अज़नबी   हूँ 
अपने लिए। 

Tuesday, September 17, 2013

विदाई के क्षण

आँखों में भय मिश्रित उदासी,
हाथों के स्पर्श की गर्मी में
बिछुड़न की सिहरन।
हृदय की नियंत्रित धडकनों में 
अनियंत्रित होने की कशिश।
ख़ामोशी में ऐसी हलचल
जो आंदोलित कर दे
किसी का भी शांत मन।
ये सब कुछ घट गया
विदाई के उस एक क्षण।  

सानिध्य एवं शुभकामनायें

सानिध्य 

तुम्हारे सानिध्य में युग बीते , तो एक पल जैसा लगेगा,
अग्नि की तपन भी मुझे, शीतल जल लगेगा ,
तुम्हारे स्नेहिल बंधन में बंधा ऐसा-
किसी अन्य की स्मृति भी, तुमसे छल लगेगा।

शुभकामनायें 

                                  (1)
ऊँचे विचार ऊँचा मस्तक, ऊँची सदैव इच्छा करना ,
कभी न आशा छोड़ निराशा की   वेदी पर पग रखना, 
कभी व्यथित हो इतना कि अश्रु लगें बहने अपार, 
भूल न जाना बीते पल ये याद हमारी तुम करना।  

                                  (2)
बनो अग्नि वो जो सोना को कुंदन कर देता है,
मधुर मिलन के प्रतिफल में जो नव जीवन देता है,
मेरी आशा कर प्रयास तुम कुण्डलिनी के अग्नि बनो ,
बनो अग्नि जो सभी अपावन पावन कर देता है।  

                                   (3)
निर्मल जल सी बहती रहो  तुम, बसंती पवन सी बिचरती रहो तुम, 
खुशबू मन की  कम न होने पाए कभी, महकती रहो चन्दन सी सदा तुम। 

                                   (4)
सतरंगी सपनों को आज उल्लास का रंग लगा दें , 
अपने के अपनों को भी आज मिलकर रंग लगा लें।
मन के कोनो में बैठे आज शिकवे गिले मिटा दें, 
होली के इस पावन पर्व पर जी भर गले लगा लें। 

Monday, September 16, 2013

समर्पण एवं आभार

mUgsa lefiZr ftu u;uksa us lius cqus]
mUgsa lefiZr tks dj vk”kh’k gsrq mBs]
ftu u;uksa esa vc Hkh fody izrh{kk gS&
mUgsa lefiZr ftu yksxksa us tuk eq>sA

lefiZr mu maxfy;ksa dks] ftUgsa idM+ pyuk lh[kk]
ftu o{kksa dh nqX/k&/kkj us esjs thou dks lhapk]
mUgsa lefiZr lax Qsjs ys] tks esjh v/kZkax cuha]
vkSj mUgsa ekul ij ftlus izse dh _tq js[kk [khapkA
 gqvk O;fFkr tc&tc eu esjk] lkgl izksRlkgu fn;k eq>s]
,sls fe=ksa] Lotuksa dk eSa vkHkkjh gwawW eu lsA
gwaWaa d`rK mu xq:tuksa dk] ftu yksxksa us vk/kkj fn;k]
ix&ix eq>dks jkg fn[kk;h] feV~Vh dks vkdkj fn;kA

उपर्युक्त समर्पण मैंने अपने एम फिल (मेडिकल और सोसल सायकालोजी) dissertation के लिए वर्ष २००० में RINPAS , रांची में लिखा था।उस समय अंतिम पद्य की प्रथम दो पंक्तियाँ नही लिखी गयी थीं। ये पंक्तियाँ १२ वर्षों के पश्चात अपने  PhD Thesis में मैंने जोड़ा और शीर्षक रखा 'समर्पण और आभार'। इसके सन्दर्भ में और जानकारी के लिए कृपया  मेरे ब्लॉग "राकेश उवाच : एक चिकित्सा मनोवैज्ञानिक की डायरी के लिंक: http://rakeshuvaach.blogspot.in/ " पर जायें।
Photo: Finally the day comes 

Saturday, September 14, 2013

अपनी सोच.......राकेश त्रिपाठी

फ़र्क

उनके  होने न होने में
कोई ख़ास फ़र्क नहीं है ,
पहले- 
उनके सानिध्य में दिन बीते, 
और  अब -
उनकी याद में।
 
 

प्रीति 

उमड़-घुमड़ कर प्रीति तुम्हारी
स्नेह सुधा बरसाती ,
तन- मन  पुलकित
रोम-रोम में सिहरन एक जगाती ,
श्वेत चंद्र जब नील गगन में
मंद -मंद मुस्काता ,
धवल चाँदनी, अमिय रश्मि बन
शीतल करती छाती।