Monday, September 30, 2013

पीछे छूट चले थे जो, फिर उन लम्हों से बात हुयी

मुझे अपने मित्र की शादी में बनारस जाना था।  काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस में मेरा रिजर्वेशन था। प्लेटफार्म पर बैठकर ये पंक्तियाँ लिखते हुए मेरी ट्रेन छूट गयी और मुझे बस से जाना पड़ा।  आप भी इनसे रूबरू हों:


पीछे छूट चले थे जो , फिर उन लम्हों से बात हुयी,
वर्षों बाद लगा जैसे, मेरी मुझसे मुलाकात हुयी। 

जितनी मुद्दत, उतने शिकवे , जिस शिद्धत से बख्शे उसने,
वर्षों बाद लगा जैसे, फिर से मेरी पहचान हुयी। 

मन में फिर अंतर्द्वंद लिए, हिम्मत -कायरता संग लिए, 
सीमा-रेखा में बंधे-बंधे, फिर वही अधूरी बात हुयी। 

थे नयन सजल, फिर भी सुकून महसूस हुआ इस शिद्धत से,
रोम रोम पुलकित हो उट्ठे प्रेम की  यूँ बरसात हुयी। 

वर्षों बाद लगा मुझको , मेरी मुझसे मुलाकात हुयी।  

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