Friday, September 20, 2013

अनकहा

मेरे और तुम्हारे बीच , जो कुछ भी है अनकहा 
तुम ही बताओ तुमसे उसे कैसे कहूं ?
दिन में किया अभ्यास , स्वप्न में हुआ आभास 
पर व्यर्थ सब प्रयास 
कुछ भी न कहा सका, तुमसे हुआ जब सामना 
अब तुम ही बताओ, तुम से उसे कैसे कहूं ?
ये अनकहा 
मुखर अभिव्यक्ति है 
मेरे भावों की, मेरे साधना की, मेरे विशवास की और 
झूठ के बीच दम तोड़ते सत्य की 
जब तुम समझ न पाते प्रिय 
तब तुम ही बताओ तुमसे उसे कैसे कहूं?
इस अनकहे को स्वर देना होगा 
जब तुम भी नहीं समर्थ 
पर साथी!
इसके पूर्व, मुझे फिर से गढ़ना होगा -
मेरे -तुम्हारे संबंध की नीव को,
सीचना होगा, प्रेम की धार से 
श्रृद्धा और विश्वास को 
जगाना होगा मेरे -तुम्हारे बीच सो गए 
अपनत्व को ममत्व को। 

सोया नहीं अपनत्व, ह्रदय में भरा ममत्व 
मजबूत है नीव भी संबंधो की 
और हैं श्रृद्धा और विश्वास भी 
वंचित स्नेहिल स्पर्श से 
एकाकी हुआ था सब। 
तुम्हारी दृष्टि ही पर्याप्त 
तुम्हारी मुस्कान में है व्याप्त 
जो भी रहा है अनकहा। 
तो साथी!
सब बचा लो बिन कहे 
क्योंकि अनकहा है 
हमारे बीच का सम्बन्ध। 

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