Tuesday, October 1, 2013

बचपन की यादें और अब

बचपन के जो संगी साथी, याद हमेशा उनकी आती,
बागों क़ी कलियाँ, गाँव की गलियां, टनटनाती मंदिर की घंटियाँ,
गुल्ली-डंडा शुर्र, तमाशा, झट से बड़े होने की आशा,
माँ की लोरी सुन सो जाना, पापा की बोली सुन उठ जाना,
सुबह सवेरे उठकर हम सब, बड़े बुजुर्गों के छूते पांव,
बाबा की लाठी का भय मन में, दादी का आँचल देता छाँव,
खेत भरे, खलिहान पटे, अन्न की रहती भरमार,
बाग़ में टपका लपक लेने को, आपस में हो जाती मार,
वर्षा में माटी की सुगंध,  ठण्ड कड़कती उस पर धुंध,
किस्से वो जलती अलाव पर, भूजना होरहे चोरी कर, 
शिक्षित होने को घर छूटा, मकान किराए का, घर अपना टूटा,
शहर बुलाया रोज़गार ने, प्रकृति की गोदी छूटी,
भागमभाग है धन के पीछे, सुख शांति की गगरी फूटी।  

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